नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
Chetna Ke Sapt Swar - poetry by Dr. Om Prakash Vishwakarma
विषयक्रम
- चेतना के सप्त स्वर
- अपनी बात
- आत्म साक्ष्य
- आर.एस. शर्मा
- आचार्य डा० रामकृष्ण आर्य
- सरस्वती वंदना
- शिव वन्दना
- माँ भागीरथी
- चेतना के सप्त स्वर में
- प्रातःकालीन शुभकामनायें
- पथिक पौरुष
- पथिक चर्चा
- परिश्रम का महत्व
- कर्म क्षेत्र
- कुछ पल बाद प्रकाश भी होगा
- दुर्बलता या सबलता
- कैसे आज बसन्त मनायें ?
- जब ऋतु बसन्त की आती है
- तब बसन्त श्रृंगार करूँगी
- पतझड़
- कितना प्यारा कितना सुन्दर गाँव हमारा।
- बदल रही पहचान निरन्तर भारत के गाँवों की
- चलो उन गाँवों की ओर
- पावस
- मेघ राज
- देश को वीरों का साहित्य चाहिए !
- ऐसा नहीं विकास चाहिये
- आज देश को अनेकों जय प्रकाश चाहिये
- भाइयों ! आज रात अम्बेदकर फूट-फूट कर रोये
- आज रात नेताजी सुभाष चन्द्र बोस मिले थे
- जातीयता की बातें छोड़ो, राष्ट्रीयता की बात करो
- वर्तमान की राजनीति
- लुटता रहा हमारा देश
- यह भारत देश हमारा है
- अश्रु धार मत आने दो
- मेरे प्यारे देश तुझे तन-मन-धन सब अर्पण है
- देश प्रेम
- गरजे जब भारत के लाल
- कारगिल शहीदों को श्रद्धांजलि
- पाक को चुनौती
- हे ! पूज्य महात्मा गाँधी
- विश्व है स्वार्थ से भरा हुआ।
- रामराज्य की अभिलाषा
- हम किस चौराहे पर खड़े हैं?
- प्रकृति का उपहार (प्रसन्नता)
- अचिन्त्य का चिन्तन कैसे करें?
- एकाँकी अनुभूति
- अनुभूति
- यह कैसा जीवन हम जीते हैं?
- ये कैसा जीवन है मेरा?
- मेरा जीवन
- कोना कोना महकायेगा
- हाँ ! मधुरस पीता हूँ
- कितना खोया कितना पाया
- उर वीणा का अब सुने राग
- दीपावली
- तुम मुझको अपना लेना
- प्यास
- कोई ईसा अब सूली चढ़ेगा नहीं
- इतिहास प्रश्न
- मित्रता
- परमेश्वर का करें वरण
- प्यासा रहा मैं उम्र भर बस तेरे सहारे
- तभी जिन्दगी पूरी है
- पत्थर बोल रहे शहरों में...
- आधुनिक रामराज्य
- अब तक हमने जो भी देखा
- मैं बराबर घट रहा हूँ
- गर्म तवे सा तपना है
- आदमी को आदमी से प्यार होना चाहिये
- दर्द में मेरी खुशी दर्द में त्योहार
- हे माधवी ! हे वारुणी !
- असली प्रजातन्त्र
- शराब की विशेषता
- शेष सब संसार को प्रियतम भुला दो।
- कि दिनकर आये हैं
- प्रकाश का दीप स्वतः जल जाये
- मैं उन्मुक्त गगन का पक्षी
- अब इस जीवन को विश्रान्ति दो
- मैं नहीं कहता उससे उबार लो
- दिवस का यह कौन सा स्वर्णिम प्रहर
- चिर निरंतर चल चला चल
- यह अन्याय नहीं करना था
- तृष्णा
- दर्पण
- मानव धर्म
- भारत माता झुलस रही थी, रक्त भरे अंगारों में
- प्राकृतिक गुण
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